गीत गजल


लहर दर्द की उभर आई रे जोगी..........


ये कैसी खामोशी,  मन आँगन छाई रे जोगी ।

उथल पुथल मस्तिष्क में है,  फिजा में तन्हाई रे जोगी॥

जीवन की घडियां बीत चलीं,  ढोते ढोते यादों की लाशें ।
यह कैसी दूरी, कैसी मजबूरी, कैसी मेरी रुसवाई रे जोगी ॥

गैर अपने हो न सके,  अपने बेगाने बन गए ।
यादों के झरोखे , धोखे ही धोखे लहर दर्द की उभर आई रे जोगी ॥

है वक्त की मार,  मेरे साथी,  मेरे हमसाये भी साथ छोड़ चले।
सब सपने टूटे, अपने रूठे, किसने खिड़की यादों की खुलवाई रे जोगी॥

मन का कोलाहल कुछ कम कम दो,  प्याला गम का भरने को है।
पंछी होता, पर फैलाता, उड़कर आता वो दिल दिमाग छाई रे जोगी॥

जीवन भर साथ निभाने वाले,  छोड़ चले अब बीच डगर में ।
नैन ज्योति हो गयी धूमिल, साथ छोड़ चली परछायीं रे जोगी॥

कितना अच्छा लगता है 'बख्शी' , एकाकीपन में लेनी सांसें ।
भर के पीर,  नैनो में नीर,  बन के बूंद छलक आयी रे जोगी ॥

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वे आतंकवादी न थे

नित अपनी पीठ पर 
अपनी दूकान को लादे 
वह गाँव से शहर आता है 
हो तेज़ धूप 
या बरखा की फुहार हो 
विरासत में मिला 
उसकी उम्र से बडा 
राहत कुछ तो देता है 
उसका जो छाता है। 
पत्नी की बीमारी 
बेटे की शिक्षा 
पल पल बढती
मुनिया की शादी की चिंता 
या फिर आज शाम का राशन 
सब चिंताओं को 
मस्तिष्क में समेटे 
चमरे की कतरनों के बीच 
घिरा बैठा वह बूढा मोची 
ज़र्ज़र हुए तन की 
शेष बची ताकत को 
एक जूते को 
चमकाने में लगाता है 
और चमकते जूते को देख 
सोचता है 
इस एक जोडी जूते के दाम 
मेरी दूकान की कीमत से जयादा है 
क्या हो रहा है इस शहर में 
कौन नेता है कौन अधिकारी 
किसने किसको लूटा 
की किसने, किससे नोचा खोची 
इन सब से बेखबर 
अपने काम में मग्न 
वह बूढा मोची। 
उस समय रह गया हतप्रभ 
जब उसकी दूकान (पेटी) को 
किसी ने सड़क आईआर फ़ेंक दिया 
वे आतंकवादी न थे 
थे वो अतिकर्मन के दुश्मन 
महापालिका के कारिंदे। 
अपने अरमानो का ज़नाज़ा 
अपनी आँखों से 
होगा देखना शायद 
इसकी उसे कल्पना भी न थी। 
पुनः अरमानो को अपने 
संजोने के लिए 
अपनी दुनिया फिर से सजाने के लिए 
एक एक कतरन को 
बीन रहा था वो मोची। 
वो सोच रहा था 
उसकी आँखों में आंसू 
भरे हुए थे 
एक आह खींच कर देखा उसने 
महलों वाले 
सडकों तक बढे हुए थे 

रचना १०/०८/१९९३ 

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नर्स 


अति संवेदनशील
हिरदय रोग कक्ष
सफेद कोट में घूम रहे
हिरदय रोग दक्ष
मशीनों से घिरे
लगभग बीस से अधिक रोगी
हिरदय रोग से गरसित भोगी
बीचों बीच
एक मेज़ और एक कुर्सी
दूध से उजले
परिधान में लिपटी
उस कुर्सी पर बेठी थी एक नर्स
प्रत्येक
रोगी के कष्ट से
वाकिफ है नर्स
दृष्टी के दायरे में
सभी रोगी
और उनकी साँस से
उनके दर्द को पहचानते
नर्स के कान
बिस्तर की चादर
दवा और इंजेक्शन
खतरे को भांप
डाक्टर को पुकार
रोगी को सांत्वना
सहलाना व समझाना
माता बहन बेटी पत्नी व मित्र
सभी कण दायित्व
निभाती है नर्स ।
बीसों रोगियों की देखभाल
इस बेड से उस बेड तक
भागमभाग
स्वाभाविक है थकान
घर पति बच्चे
और उनकी आवश्यकताओं को भूल
होठों पर लिए मुस्कान
अपने कर्तव्य निभाती है नर्स
हिरदय रोगियों के झुंड में
क्या किसी ने कभी
की है कोशिश ये जानने की
की नर्स के सीने में भी
होता है एक हिरदय
जिसमे असहनीय अवर्णनीय
पीरा को छिपाती है नर्स
जिसका उपचार
न दवा और इंजेक्शन
न ई सी जी न आक्सीजन
अपनी पीरा को भूल
सबक सेवा का सिखाती है नर्स
हिरदय रोगियों में यदि
मिल गया कोई मनचला
रूप दुर्गा का कर धारण
कहर बही डआती है नर्स

रचना २३/१२/१९९८

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KARFEU

बंद है बाज़ार
सुनसान हैं सड़कें
सहमी सी गलियां
मौत सा सन्नाट ।

आसमान छूते भाव

व्यापक है तनाव
चेहरे पर उदासी
जैसे विषधर ने काटा ।

नन्हा सा बालक

गंभीर है हालत
दुखी माता पिता
दर्द वैद्य ने न बांटा ।

भूख से लाचार

तडपता परिवार
नमक न आचार
होने को ख़त्म आटा।

सिख और ईसाई

पंडित और कसाई
सोचें ! किसका बोया
बीज , किसने काटा ।

रचना : २६/१०/१९९०






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